लोगों की राय

लेख-निबंध >> छोटे छोटे दुःख

छोटे छोटे दुःख

तसलीमा नसरीन

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2018
पृष्ठ :254
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 2906
आईएसबीएन :9788181432803

Like this Hindi book 8 पाठकों को प्रिय

432 पाठक हैं

जिंदगी की पर्त-पर्त में बिछी हुई उन दुःखों की दास्तान ही बटोर लाई हैं-लेखिका तसलीमा नसरीन ....

औरत का धंधा और सांप्रदायिकता

 

(1)


आजकल दैनिक अख़बारों में जो कोई भी तैल या जलचित्र, आलोकचित्र, फूल, किताब या किसी भी हल्के-फुल्के विषय की प्रदर्शनियों में, औरत की तस्वीर ही दिखाई जाती है। क्यों? प्रदर्शनी देखने वाली हँसती-मुस्कराती औरतों को ही अख़बार के पहले पन्ने पर प्रमुख जगह क्यों दी जाती है? प्रदर्शनी अगर तस्वीरों की है, तो उन तस्वीरों से ज़्यादा प्रमुख, नारी-दर्शकों का चेहरा ही क्यों अहम हो उठता है? उनकी वेशभूषा, उनकी स्मित मुस्कान! चित्र-प्रदर्शनी से कहीं ज़्यादा नारी-प्रदर्शनी ही अहम हो उठती है। चित्र-कर्म, औरत की तस्वीर के पीछे दब जाता है। अख़बारों के पाठक औरत की तस्वीर देखकर खुश होते हैं। लेकिन यह कैसा समाचार या समाचार-प्रदर्शन है? लेकिन उन लोगों को भी भला क्यों दोष दूँ? समूचे देश में नारी-प्रदर्शन जारी है, अख़बार भला यह छवि कैसे बदल सकते हैं? यह सब समाज के बाहर तो कुछ नहीं है। वे लोग भी बखूबी जानते हैं कि औरत को सजा-सँवारकर, ब्याह के पाटे पर बैठी देखकर, जैसे वरपक्ष खुश होता है; औरत को सजा-धजाकर जैसे किसी पार्टी-वार्टी में या पोशाक-प्रदर्शनी में (काफी हदं तक शारीरिक प्रदर्शनी में भी) खड़ी करके जैसे खुशी होती है, अखबारों के पन्ने पर, चित्र-प्रदर्शनी के नाम पर, नारी-प्रदर्शनी में भी पाठक और संपादकों को आत्मसंतोष होता है।

हमारे समाज में सभी किस्म के लोग यही सब विकृत तृप्ति, तुष्टि, आनन्द के सहारे जी रहे हैं। उनका जंग-लगा दिमाग, हमारी रफ्तार को आखिर कितने पीछे ले जाएगा? हम और कितने अँधेरे में डूबेंगे? देश में औरत का धंधा कब तक चलता रहेगा? लोग क्या बिल्कुल ही भूल जाते हैं कि जिस देश में औरत का असम्मान होता है; जिस देश में औरत प्रदर्शनी की चीज़ है; जिस देश में औरत को इंसान की मर्यादा नहीं मिलती, वह देश कभी, किसी दिन भी सच्चा नहीं हो सकता; उस देश पर गर्व करने को कुछ भी नहीं है! हद से हद इस अभागे देश और देश के दुश्चरित्र समाज पर हम हाहाकार कर सकते हैं या इस भूमिफोड़ समाज के पेट या पिछाड़ी पर दो घूसे जड़ सकते हैं। मेरा ख्याल है हाहाकार का वक्त अब निकल चुका है। अब हम या तो मारमुखी हो उठे या खुद मर जाएँ। इनमें से कोई एक फैसला अगर हमने ग्रहण नहीं किया, तो हम भविष्य में किसी भुतही जाति में परिणत हो जाएँगे, उम्मीद है कि कोई भी अक्लमंद इंसान, इस मंतव्य से सहमत होगा।

(2)


हाल ही में 'लज्जा' नामक उपन्यास निपिद्ध कर दिया गया है। इस किताब पर पाबंदी लगाए जाने के खिलाफ, अखबारों में काफी सारे बयान छपे हैं। कई लोगों ने कॉलम भी लिखा है। बहुत से लोगों ने मुझे यह भी बताया कि सरकारी निषेध के खिलाफ, उन लोगों ने कॉलम लिखकर, अखबारों को भेजा था, मगर अखवारवालों ने छापने से मना कर दिया। ऐसे कॉलम नहीं छापे जाएँगे, इस मामले में अखबार वालों ने संकेत भी दिया है। नहीं, मैं इंक़लाब, संग्राम या मिल्लत की बात नहीं कर रही हूँ (इन्हें मैं अखबार ही नहीं मानती, बल्कि टॉयलेट पेपर कहती हूँ)। अखबार ही अगर प्रगति के पक्ष में साहस न कर पाएँ: सांप्रदायिकता के खिलाफ लिखी गई एक किताब, सरकार जब्त कर ले और सरकारी विज्ञापन रोक दिए जाने के डर से या गुलाम आयम के देश में पता नहीं, फिर कौन-सा झमेला उठ खड़ा हो, इस आशंका से ये ही लोग अगर जुबान खोलने से डर जाएँ, तो हम आम लोग कहाँ पनाह लें? या यह देश अव टॉयलेट पेपरों से अँट जाएगा? देश भर में अब सांप्रदायिकता, निष्ठुरता, अत्याचार, अविचार छा जाएगा। लगता है, यह उसी का पूर्वाभास है! प्रगतिशील मुखौटे की आड़ में इस देश में सांप्रदायिक लोग अत्यंत निर्लज्ज भाव से बढ़ते जा रहे हैं। ये लोग टोपी-दाढ़ी वाले कट्टरवादियों से कहीं ज़्यादा भयंकर हैं और ज़्यादा वीभत्स हैं। इनकी पहचान भी मुश्किल है! आपात नज़रिये से देखो, तो ये लोग अपने ही लोग हैं। ये लोग मुखौटे पहने हमारे ही इर्द-गिर्द घूमते-फिरते हैं। हम लोग गलतफहमी में पड़कर इनसे श्रद्धा-सम्भाषण करते हैं। कवि शम्सुर रहमान ने 'लज्जा' किताब पर पाबंदी के खिलाफ लिखा। इसलिए कोई कुत्सित सांप्रदायिक शख्स शम्सुर रहमान के नाम लगभग गाली गलौज पर उतर आया है। यह सांप्रदायिक शख़्स समाज में, कहीं-कहीं 'वुद्धिवादी' के तौर पर जाना जाता है।

सुना है कि यह शख्स देश को इस्लामिक प्रजातंत्र बनाने पर लगभग तुल गया है। 'लज्जा' उपन्यास जब पहली वार प्रकाशित हुआ, तो यही वंदा, तमाम अख़बारों में यह कहता फिरा कि यह बेहद इतर दर्जे का उपन्यास है! (उसका यह मंतव्य तो इंकलाब को भी मात दे गया!) यह भी सुना है कि उसने अपने अल्लाहताला से मुनाज़त भी की है कि यह किताब भारत में उसकी जात-बिरादरी के मुसलमानों पर कोई मुसीबत न ढाए। अपने देश के भाई-बिरादरों के घर-मकान, दुकान-पाट जलकर खाक हो रहे हैं, उस तरफ बिल्कुल भी ध्यान नहीं है। उसे लेकर उसके हाथ मुनाज़त के लिए एक बार भी नहीं उठते। लेकिन दूसरे देशों के भाई-बिरादरों के लिए मनौतियाँ माँगी जा रही हैं! उस पर से ये लोग खासे 'जाति विश्वासी' हैं। जितना ख़तरा जमातियों से नहीं है, उससे कहीं ज़्यादा इन लोगों से है! ये लोग तो टॉयलेट पेपरवालों से भी ज़्यादा नुकसानदेह हैं। उन लोगों के मकाबले इन लोगों की जबान की धार. नकीले नाखनों की धार. दाँतो की धार बहुत ज्यादा है! इन लोगों से तो और भी ज़्यादा होशियार रहने की ज़रूरत है। ये लोग दोस्त बनकर घर में घुसते हैं, लच्छेदार बातें करेंगे और बड़े कायदे से मुक्तबुद्धि, असाम्प्रदायिक सोच-विचार पर कोप बैठा देंगे। जमाती लोग तो खुलेआम जनसभाओं, सड़कों पर षड्यंत्र रचते हैं, लेकिन ये परजीवी लोग घर-घर में आधी रात के वक्त, साजिश रचते हैं। ताकि कौए पंछी तक को खवर न हो। आम जनता की आँखों में धूल झोंककर, यही लोग सांप्रदायिकता का झीना जाल फैलाते हैं।

'लज्जा' निषिद्ध करके ही अगर यह सरकार पार पा जाए तो तसलीमा नसरीन का भयंकर नुकसान होगा। यह सोचकर जो जलनखोट्टे आज खुश हो रहे हैं मैं उन्हें बता दूँ कि इसमें अकेली तसलीमा नसरीन का ही नुकसान नहीं है, नुकसान समूची जाति का है! इस अभागे देश का है; नुकसान 'बंगाली मुसलमान' नामक पिछड़े हुए, असभ्य, अशिक्षित लोगों का है।




...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

    अनुक्रम

  1. आपकी क्या माँ-बहन नहीं हैं?
  2. मर्द का लीला-खेल
  3. सेवक की अपूर्व सेवा
  4. मुनीर, खूकू और अन्यान्य
  5. केबिन क्रू के बारे में
  6. तीन तलाक की गुत्थी और मुसलमान की मुट्ठी
  7. उत्तराधिकार-1
  8. उत्तराधिकार-2
  9. अधिकार-अनधिकार
  10. औरत को लेकर, फिर एक नया मज़ाक़
  11. मुझे पासपोर्ट वापस कब मिलेगा, माननीय गृहमंत्री?
  12. कितनी बार घूघू, तुम खा जाओगे धान?
  13. इंतज़ार
  14. यह कैसा बंधन?
  15. औरत तुम किसकी? अपनी या उसकी?
  16. बलात्कार की सजा उम्र-कैद
  17. जुलजुल बूढ़े, मगर नीयत साफ़ नहीं
  18. औरत के भाग्य-नियंताओं की धूर्तता
  19. कुछ व्यक्तिगत, काफी कुछ समष्टिगत
  20. आलस्य त्यागो! कर्मठ बनो! लक्ष्मण-रेखा तोड़ दो
  21. फतवाबाज़ों का गिरोह
  22. विप्लवी अज़ीजुल का नया विप्लव
  23. इधर-उधर की बात
  24. यह देश गुलाम आयम का देश है
  25. धर्म रहा, तो कट्टरवाद भी रहेगा
  26. औरत का धंधा और सांप्रदायिकता
  27. सतीत्व पर पहरा
  28. मानवता से बड़ा कोई धर्म नहीं
  29. अगर सीने में बारूद है, तो धधक उठो
  30. एक सेकुलर राष्ट्र के लिए...
  31. विषाद सिंध : इंसान की विजय की माँग
  32. इंशाअल्लाह, माशाअल्लाह, सुभानअल्लाह
  33. फतवाबाज़ प्रोफेसरों ने छात्रावास शाम को बंद कर दिया
  34. फतवाबाज़ों की खुराफ़ात
  35. कंजेनिटल एनोमॅली
  36. समालोचना के आमने-सामने
  37. लज्जा और अन्यान्य
  38. अवज्ञा
  39. थोड़ा-बहुत
  40. मेरी दुखियारी वर्णमाला
  41. मनी, मिसाइल, मीडिया
  42. मैं क्या स्वेच्छा से निर्वासन में हूँ?
  43. संत्रास किसे कहते हैं? कितने प्रकार के हैं और कौन-कौन से?
  44. कश्मीर अगर क्यूबा है, तो क्रुश्चेव कौन है?
  45. सिमी मर गई, तो क्या हुआ?
  46. 3812 खून, 559 बलात्कार, 227 एसिड अटैक
  47. मिचलाहट
  48. मैंने जान-बूझकर किया है विषपान
  49. यह मैं कौन-सी दुनिया में रहती हूँ?
  50. मानवता- जलकर खाक हो गई, उड़ते हैं धर्म के निशान
  51. पश्चिम का प्रेम
  52. पूर्व का प्रेम
  53. पहले जानना-सुनना होगा, तब विवाह !
  54. और कितने कालों तक चलेगी, यह नृशंसता?
  55. जिसका खो गया सारा घर-द्वार

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book